अनिल सिंह
: भ्रष्टाचार गड़बड़ी की तमाम शिकायतों के बावजूद नहीं हो रही कार्रवाई : रिटायरमेंट के बाद भी प्रमुख सचिव विधानसभा ले रहे वित्तीय फैसले : लखनऊ : उत्तर प्रदेश विधानसभा सचिवालय नियुक्तियों में गड़बड़ी को लेकर लगातार आरोपों की जद में रहा है। विवादों से शुरू हुई प्रमुख सचिव विधानसभा की नियुक्ति के बाद अब उनका रिटायरमेंट भी विवादों में है। अप्रैल 2019 में रिटायर होने के बावजूद प्रमुख सचिव विधानसभा प्रदीप दुबे वित्तीय मामलों में धड़ाधड़ निर्णय ले रहे हैं।
बसपा एवं सपा के खास होने के बाद अब भाजपा के भी खास बन गये हैं। रिटायर अधिकारियों की फौज के साथ प्रमुख सचिव विधानसभा पूरी व्यवस्था पर इस कदर काबिज हो गये हैं कि उनके इशारे के बिना यहां एक पत्ता तक नहीं हिलता है। सुंदरीकरण, निर्माण से लेकर हर मामले में अपने लोगों को लाभ पहुंचाकर प्रदीप दुबे इस कदर मजबूत हो चुके हैं कि बसपा और सपा के बाद भाजपा की सरकार ने भी उनके समक्ष घुटने टेक दिये हैं।
सवाल अब सरकारी कार्यप्रणाली पर भी उठ रहे हैं कि क्यों विवादों-भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे एक रिटायर अधिकारी पर मेहरबान है यूपी सरकार? क्यों नहीं सरकार पुरे मामले की जांच कराकर सचिवालय में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा नौकरियों में गड़बड़ी की शिकायत पर जांच कराती है? अब ऐसा लगने लगा है कि भाजपा की सरकार भी पिछली सरकारों के नक्शेकदम पर है।
बसपा, सपा के बाद अब भाजपा सरकार में भी ऐसा प्रतीत होने लगा है कि उत्तर प्रदेश में ऐसा कोई दूसरा अधिकारी नहीं है, जो विधानसभा में प्रमुख सचिव पद की जिम्मेदारी संभाल सके! भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की बात करने वाली भाजपा सरकार में एक विवादित अधिकारी को बिना किसी आदेश के लगातार सेवा विस्तार मिलना तथा वित्तीय मामलों पर उसके द्वारा धड़ाधड़ निर्णय लेकर कुछ लोगों को लाभ पहुंचाना, सरकार की साख पर भी सवाल खड़ा कर रहा है।
आखिर विवादों के जरिये नियुक्त होने वाले प्रमुख सचिव विधानसभा प्रदीप दुबे की रिटायरमेंट भी क्यों विवादों में है? आखिर उनमें ऐसे कौन से सुरखाब के पर लगे हैं, जो बसपा, सपा के बाद भाजपा की सरकार भी आंख मूंदकर मेहरबान हुई पड़ी है? सेवा विस्तार के बाद दुबारा रिटायर हो जाने पर भी उन्हें अब तक अवमुक्त नहीं किया गया और ना ही किसी नये अधिकारी का चयन ही किया गया। बताया जा रहा है कि सरकार को अंधेरे में रखकर विधानसभा में भी प्रमुख सचिव के रिटायरमेंट की उम्र विधान परिषद जितनी कराने के बाद प्रदीप दुबे को ही 65 साल तक जिम्मेदारी सौंपने की तैयारी अंदरखाने चल रही है।
सबके जेहन में सवाल है कि आखिर प्रदीप दुबे पर इतनी मेहरबानी क्यों कि वह खुद रिटायरमेंट के बाद एक्सटेंशन पर तो चल ही रहे हैं, साथ ही अपने खास लोग जो इनके हर खेल में साथ देते हैं, उन्हें भी रिटायरमेंट के बाद अपने साथ लगा रखा है? विधानसभा सचिवालय टायर्ड एवं रिटायर्ड अधिकारियों का हब बन चुका है, भ्रष्टाचार से जुड़े आरोपों का गढ़ बन चुका है, फिर भी क्यों योगी सरकार इन लोगों को विस्तार पर विस्तार दिये जा रही है, यह सबकी समझ से बाहर है?
प्रमुख सचिव विधानसभा प्रदीप दुबे के कार्यकाल में विधानसभा में हुई कई भर्तियों पर उंगली उठी, लेकिन सभी दलों के नेताओं से मधुर संबंध रखने वाले प्रदीप दुबे का बाल भी बांका नहीं हो पाया। सपा सरकार ने दो वर्ष का सेवा विस्तार दिया तो भाजपा की सरकार आने के बाद से लगातार सेवा विस्तार पर ही चल रहे हैं। इनकी किसी भी नियुक्ति का आर्डर वित्त विभाग या विधानसभा से जारी नहीं होता है, इसके बावजूद ये वित्तीय निर्णय लेते रहते हैं।
विधानसभा सचिवालय के अधिष्ठान अनुभाग की विशेष सचिव पूनम सक्सेना ने विज्ञप्ति जारी किया कि 30 अप्रैल 2019 को प्रमुख सचिव विधानसभा प्रदीप दुबे के रिटायर हो गये हैं। इसके बाद उनके सेवा विस्तार की कोई विज्ञप्ति या प्रकीर्ण विधानसभा की ओर से जारी नहीं की गई, बावजूद इसके प्रदीप दुबे धड़ाधड़ वित्तीय निर्णय लेते जा रहे हैं। प्रदीप दुबे पर विधानसभा सचिवालय में तमाम नेताओं के रिश्तेदारों की अनियमित तरीके से भर्ती करने तथा गलत तरीके से प्रमोशन करने के आरोप हैं। संविदा पर तैनात कर्मचारियों को नियमविरुद्ध तरीके से नियमित करने के आरोप भी प्रदीप दुबे पर लगे हैं, फिर भी भाजपा सरकार इन पर क्यों मेहरबान है, यह समझना राकेट साइंस से भी मुश्किल हो गया है?
उच्चतर न्यायिक सेवा के अधिकारी प्रदीप दुबे प्रमुख सचिव विधान एवं संसदीय कार्य के पद पर तैनात होने से पहले उत्तर प्रदेश के राज्यपाल के विधि सलाहकार के पद पर कार्यरत थे। इसी दौरान प्रमुख सचिव विधानसभा एवं संसदीय कार्य का पद खाली हुआ। बसपा का शासन चल रहा था। प्रदीप दुबे ने 13 जनवरी 2009 को उच्चतर सेवा के न्यायिक अधिकारी पद से सेवानिवृत्ति ले ली। रिटायरमेंट लेने के छह दिन बाद ही बसपा सरकार ने प्रदीप दुबे को 19 जनवरी 2009 को प्रमुख सचिव संसदीय कार्य पर नियुक्त कर दिया।
मायावती सरकार ने प्रदीप दुबे को संसदीय कार्य के साथ प्रमुख सचिव विधानसभा का अतिरिक्त प्रभार भी दे दी, क्योंकि तब यह पद खाली चल रहा था। जब इनकी विधानसभा में प्रमुख सचिव संसदीय कार्य के पद पर नियुक्ति हुई तब इनकी उम्र 52 वर्ष थी। प्रदीप दुबे ने अपने घोड़े खोलकर प्रमुख सचिव विधानसभा पर अपनी अस्थायी जिम्मेदारी को स्थायी करवा लिया। 27 जून 2011 को विशेष सचिव नरेंद्र कुमार सिन्हा के आदेश पर प्रदीप दुबे को संसदीय कार्य से हटाकर विधानसभा का प्रमुख सचिव बना दिया गया।
यह जिम्मेदारी सेवा स्थानांतरण के तौर पर की गई। इस आदेश में स्पष्ट किया गया कि इस सेवा में न्यायिक सेवा का कार्यकाल भी जोड़ा जायेगा। जब उन्हें विधानसभा का प्रमुख बनाया गया तब उनकी उम्र 54 साल हो चुकी थी, जबकि नियम के अनुसार इस पद के लिये अधिकतम आयु 52 वर्ष निर्धारित थी, जिसकी जानकारी खुद विधानसभा से इस नियुक्ति के छह माह बाद निकाले गये विज्ञापन के माध्यम से दी गई थी।
विधानसभा प्रमुख सचिव पद के लिये विज्ञापन निकाले जाने एवं पद के लिये अधिकतम आयु 52 वर्ष होने के बाद वावजूद प्रदीप दुबे ने पूरा जोर लगा दिया कि सीधी भर्ती नहीं होने पाये। यह सारा प्रयास इसलिये किया गया, क्योंकि उम्र अधिक होने के चलते प्रदीप दुबे इस पद के लिये निकाली गई सीधी वेकेंसी के लिये आवेदन भरने के हकदार नहीं रह गये थे। और आखिरकार वह अपने प्रयास में सफल रहे। सीधी भर्ती से किसी की नियुक्ति नहीं हो पाई, प्रदीप दुबे को ही प्रमुख सचिव की जिम्मेदारी दे दी गई।
6 मार्च 2012 को विशेष सचिव नरेश चंद्र के आदेश से प्रमुख सचिव विधानसभा के पद पर स्थायी नियुक्ति दे दी गई। गौरतलब है कि यह नियुक्ति तब की गई, जब राज्य में विधानसभा के चुनाव चल रहे थे। चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन कर प्रदीप दुबे की नियुक्ति की गई। प्रदीप दुबे की नियम विरुद्ध नियुक्ति के खिलाफ सपा और भाजपा ने जमकर विरोध किया। मामला हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंचा। खासकर सपा ने तो सारे घोड़े खोल दिये, लेकिन बसपा सरकार में सुखदेव राजभर का बरदहस्त होने से प्रदीप दुबे का कुछ नहीं बिगड़ा।
सबसे दिचलस्प बात रही कि प्रदीप दुबे की नियुक्ति का वरोध करने वाली सपा अपनी सरकार आने के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं की। उल्टे प्रदीप दुबे सपा सरकार की आंखों के भी तारे बन गये। सपा सरकार में हुई नियुक्तियों में गड़बड़ी करने के आरोप लगने के बावजूद कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई। सपा शासनकाल में रिटायर होने के बावजूद इन्हें एक साल का सेवा विस्तार दे दिया गया।
वर्ष 2017 में जब भाजपा की सरकार आई तो नियुक्तियों में गड़बड़ी का आरोप लगाने वालों को उम्मीद जगी कि अब उनकी शिकायतों पर संज्ञान लिया जायेगा तथा इनका सेवा विस्तार खत्म कर जांच कराई जायेगी, लेकिन योगी सरकार के गठन के बाद प्रदीप दुबे और अधिक मजबूत हो गये। अप्रैल 2017 में सेवा विस्तार समाप्त होने के बाद भाजपा सरकार ने इन्हें दो साल का और सेवा विस्तार दे दिया। सपा-बसपा के दौर से भी ज्यादा मजबूत भाजपा में हो गये।
अप्रैल 2019 में रिटायरमेंट के बावजूद प्रदीप दुबे प्रमुख सचिव विधानसभा के पद पर कार्यरत हैं। अब इनका रिटायरमेंट 65 साल तक करने की भी तैयारी चल रही है, इसके लिये सरकार कैबिनेट से आवश्यक संशोधन भी करा लिया गया है। हालांकि इसमें भी दिलचस्प बात यह है कि इनके सेवा विस्तार की कोई विज्ञप्ति या प्रकीर्ण विधानसभा सचिवालय या वित्त विभाग की तरफ से जारी नहीं की जाती है। वर्ष 2020 में भी वह मनमाने तरीके से रिटायर्ड कॉकस के साथ काम कर रहे हैं। अब भाजपा की सरकार में भी प्रदीप दुबे के खेल पर रोक नहीं लग सकी तो फिर किस सरकार से उम्मीद की जा सकती है कि कार्रवाई होगी?
जनसूचना अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में भी इस बात का खुलासा हुआ है कि नियुक्ति अनुभाग ने 1 अप्रैल 2017 के उपरांत किसी भी सेवानिवृत्त होने वाले राज्य सरकार के अधीनस्थ विभागों के प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारियों में से किसी अधिकारी को पुनर्नियुक्ति या सेवा विस्तार नहीं दिया है। इसका सीधा मतलब है कि बिना किसी सरकारी आदेश के प्रदीप दुबे विस्तार पर विस्तार लेकर वित्तीय फैसले लेकर सरकार की जीरो टालरेंस नीति को धत्ता बता रहे हैं।
क्यों खास हैं आरसी मिश्र
विधानसभा सचिवालय केवल नियुक्तियों में भ्रष्टाचार के लिये ही विवादों में नहीं है, बल्कि यह टायर्ड एवं रिटायर्ड लोगों का शरणस्थली भी बन चुकी है। विधानसभा के सारे महत्वपूर्ण काम रिटायर्ड कर्मचारियों के भरोसे चल रहे हैं। विधानसभा सचिवालय में सरप्लस कर्मचारियों की नियुक्ति होने के बावजूद रिटायर हो चुके लोगों को सलाहकार बनाकर काम लिया जा रहा है ताकि इसमें होने वाला खेल इन कॉकस से बाहर नहीं जा सके। सवाल यही है कि जब पहले से ही पर्याप्त कर्मचारी मौजूद हैं तो फिर यह सेवा विस्तार या सलाहकार बनाकर रिटायर कर्मचारियों को लाने की कौन सी मजबूरी है?
दरअसल, आरोप है कि यह खेल केवल इसलिये होता है ताकि लूट का खेल बदस्तूर जारी रह सके। नये लोगों के साथ तालमेल बिठाने में दिक्कत आ सकती है। घोटाले बाहर जाने का खतरा हो सकता है, लेकिन टेस्टेड आदमी को रिटायरमेंट के बाद लाने से खेल जारी रह सकता है। खुद अप्रैल 2017 में रिटायर होने के बाद एक्सटेंशन पर चल रहे प्रमुख सचिव विधानसभा प्रदीप दुबे ने फर्जी नियुक्ति के आरोपी रहे तथा नौकरी के नाम पर करोड़ों हड़पने के आरोपी आरसी मिश्र को सेवानिवृत्त होने से पहले ही सलाहकार बनाकर खेल करने की जिम्मेदारी सौंप दी है।
आरसी मिश्र पर वर्ष 2013 में आरोप लगा था कि विधानसभा स्थित इनके कक्ष में पैसे लेकर फर्जी नियुक्तियों के लिये साक्षात्कार कराया गया था। इसमें इनकी सहभागिता के भी आरोप लगे थे। इस खेल में मंशा राम उपाध्याय, सुधीर यादव, आरसी मिश्र, जय किशोर दि्वेदी के नाम सामने आये थे। इसमें हजरतगंज पुलिस ने 27 जून 2013 को इन सभी के खिलाफ आईपीसी की धारा 406, 419, 420, 467, 468, 471 एवं 506 के तहत मामला दर्ज किया था।
आरोप में नाम सामने आने के बाद माता प्रसाद पांडेय ने आरसी मिश्र की ओएसडी के रूप में की गई नियुक्ति को तत्काल प्रभाव से निरस्त कर दिया था। आरसी मिश्र को बर्खास्त करने का पत्र भी जारी कर दिया गया था, परंतु, मामला ठंडा पड़ते ही प्रमुख सचिव विधानसभा प्रदीप दुबे ने अपने इस विश्वसनीय और खास साथी की विधानसभा सचिवालय में वापसी करा दी। साथ ही संविदा अनुसेवक के पद पर रहे और नौकरी दिलाने के नाम पर आरोपी बने सुधीर यादव पर भी प्रदीप दुबे ने पूरी मेहरबानी दिखा दी।
बसपा शासनकाल में लैकफैड का घोटाला हो या फिर विधानसभा सचिवालय में पैसे लेकर फर्जी नियुक्तियों कराने का मामला, आरसी मिश्र हर बार अपने रसूख और पैसे के बल पर दबवाते चले गये। करोड़ों की संपत्ति के मालिक आरसी मिश्र पर तकरोही में स्थित अपने एसबीएम पब्लिक स्कूल के लिये श्मशान की जमीन कब्जाने का भी आरोप है। पर रिटायरमेंट के बाद भी पूरा भौकाल मेंटेन करने वाले आरसी मिश्र पर जब खुद विधानसभा प्रमुख सचिव का हाथ है तो सिस्टम में कोई क्या कर पायेगा? उनके साथ सुधीर यादव भी पूरी ताकत से इस नेटवर्क को मजबूत करने में जुटे हुए हैं।
सुसाइड नोट लिखकर मरा था अनुसेवक
विधानसभा सचिवालय में मौजूद कॉकस के चलते ही बर्खास्त किये गये एक अनुसेवक प्रेम चंद्र पाल ने बाकायदे सुसाइड नोट लिखकर आत्महत्या कर ली थी। अपने सुसाइड नोट में पाल ने प्रमुख सचिव एवं उनके खास लोगों पर मानसिक प्रताड़ना का आरोप लगाते हुए उसके नाम पर विधानसभा सोसाइटी से 22 लाख से ज्यादा लोन निकालने तथा उसे मात्र तीन लाख रुपये दिये जाने का आरोप लगाया था। सुसाइड नोट मिलने के बावजूद इस मामले में पुलिस ने कोई एक्शन नहीं लिया। जबकि आरोप था कि नोटबंदी के दौर में प्रेम चंद्र पाल के नाम पर खेल किया गया था।
जब प्रेम चंद ने खेल में शामिल होने से मना कर दिया तो उस पर आरोप लगाकर बर्खास्त कर दिया गया। मरने से पहले उसने सुसाइड नोट छोड़ा था, लेकिन पुलिस ने दबाव में उस सुसाइड नोट का कोई संज्ञान ही नहीं लिया, क्योंकि इसमें विधानसभा सचिवालय के कई बड़े लोगों के नाम थे। पुलिस ने अगर इस मामले की गंभीरता से जांच की होती तो विधानसभा सचिवालय में चलने वाले कई बड़े खेलों का खुलासा हो सकता था।
टि्वटर हैंडल के नाम पर खेल
विधानसभा में अपने लोगों को लाभ पहुंचाने के लिये सारे नियम कानून दरकिनार कर दिये जाते हैं। मनमाने तरीके से वित्तीय फैसले लिये जाते हैं। वित्तीय मामलों की कोई जांच नहीं होती तो मनमाने तरीके से अपनों को सरकारी धन से लाभ पहुंचाया जाता है। विधानसभा में अपना मीडिया सेल एवं पीआरओ सेल होने के बावजूद अपने खास लोगों को लाभ पहुंचाने की गरज से विधानसभा तथा विधानसभा अध्यक्ष के टि्वटर को हैंडल करने की जिम्मेदारी बाहर के व्यक्ति को दी गई है।
आरोप है कि इस काम के लिये उसे हर महीने मोटी रकम दी जाती है, जबकि विधानसभा का अपना खुद का मीडिया सेल है, जो इस काम को बिना किसी खर्च में संचालित कर सकता है, लेकिन कुछ लोगों को सरकारी धन पर मौज कराने के लिये प्रमुख सचिव विधानसभा प्रदीप दुबे ने प्राइवेट व्यक्ति को उक्त जिम्मेदारी दे रखी है। यह भी जांच का विषय है कि अब तक इस मद में कितनी रकम खर्च की गई है तथा बाहर के व्यक्ति को यह जिम्मेदारी देने की आवश्यकता क्यों पड़ी? आखिर किसके कहने पर प्रदीप दुबे ने यह निर्णय लिया?
मेंटेनेंस पर करोड़ों खर्च
विधानसभा सचिवालय में मेंटेनेंस, कंसट्रक्शन, रिन्यूवेशन के नाम पर हर साल करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। ठीक चीजों को भी दुबारा ठीक कराये जाने का खेल चलता ही रहता है। बताया जाता है कि यह खेल इसलिये होता क्योंकि इस मद में मोटी रकम का वारा न्यारा चलता है। कुछ मामलों में फायर विभाग की आपत्ति के बावजूद ये काम चलता रहता है। इस काम में लोक निर्माण विभाग के इंजीनियर सुरेश दुबे भी प्रदीप दुबे का पूरा साथ देते हैं। आरोप है कि इन अधिकारियों की चल-अचल संपत्तियों की ही जांच ईमानदारी से करा ली जाये तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा। पर बड़ा सवाल है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन?