अनूप गुप्ता
किसी सियासतदां, ब्यूरोक्रेट्स या फिर समाज में घटी किसी घटना को लेकर सामने वालों की नैतिकता तौल डालने वाले पत्रकार खुद कितने नैतिक हैं, इसके तमाम उदाहरण भरे पड़े हैं। प्रदेश भर में एक खोजिएगा तीन मिलेंगे, लेकिन उत्तर प्रदेश की राजधानी में नैतिकता का भारी भरकम चोला ओढ़कर कंबल में घी पीने वालों की संख्या कम नहीं है। दूसरों की नैतिकता पर टीवी, अखबार में प्रवचन देने वाले खुद कितने अनैतिक हैं, इसकी बानगी अवैध और नियम विरुद्ध तरीके से कब्जाए गए सरकारी आवासों की संख्या से देखी जा सकती है। राजधानी में तमाम मान्यता प्राप्त पत्रकार ऐसे हैं जो आवास आवंटन नियमावली के विपरीत गलत सूचनाओं के आधार पर सरकारी आवासों पर कब्जा जमाए हुए हैं। दूसरे थेथरई कि पराकाष्ठा यह कि गलत तरीके से आवास कब्जाने के बाद किराया तक नहीं दे रहे हैं। इन पत्रकारों का करोड़ों रुपए का किराया बाकी है, लेकिन किसी सरकार में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह इनका आवास खाली करा ले, या फिर किराया जमा करवा सके। आवंटन की वैधता की जांच तो खैर दूर की कौड़ी है।
कानून ठेंगे पर
लखनऊ : यह दौर ही नैतिक गिरावट और चरित्र पतन का है! विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका का चरित्र भी अविश्सनीय हुआ है। भ्रष्टाचारी होने से ज्यादा अनैतिक हो रहे हैं हम। बेशर्म हो रहे हैं हम। गिरावट चहुंओर है, लेकिन पत्रकारिता और पत्रकारों के चरित्र में आ रही गिरावट सबको पीछे छोड़ रही है। किसी छोटी सी बात पर नेताओं, मंत्रियों, विधायकों, सांसदों, अधिकारियों को घेरने वाले, कटघरे में खड़ा कर देने वाले तमाम पत्रकार अपनी गिरेबान में शायद नहीं झांकते हैं! झांकते होते तो उनमें इतना नैतिक साहस नहीं होता कि वह अनैतिक काम करने वाले किसी दूसरे से सवाल कर सके। समूचे पत्रकारिता और पत्रकार बिरादरी पर सवाल नहीं उठाया जा सकता, लेकिन तथाकथित खुद को बड़ा पत्रकार कहने वालों को जरूर अपनी गिरेबान में झांकना चाहिए। हालांकि इन तथाकथित वरिष्ठ पत्रकारों की चमड़ी इतनी मोटी हो चुकी है कि उन्हें अपने गिरेबान में झांकने के बाद भी शर्म शायद ही आए!
आखिर नैतिक रूप से पतित तथाकथित ये वरिष्ठ पत्रकार अपनी भावी पीढ़ी के लिए कैसा उदाहरण और माहौल छोड़कर जाना चाहते हैं? कुछ मुट्ठी भर अनैतिक और भ्रष्ट पत्रकारों के कुकर्मों के चलते समूची पत्रकारिता पर उंगलियां उठने लगी हैं। सरकारी नियम-कानूनों को धत्ता बताकर राजधानी लखनऊ में तमाम पत्रकार सरकारी आवासों में जमे हुए हैं। तथाकथित वरिष्ठ पत्रकारों की चमड़ी इतनी मोटी हो चुकी है कि उन्हें ना तो अपनी खुद की इज्जत की परवाह है और ना ही पत्रकारिता जैसे पवित्र पेशे की। राजधानी में अपना खुद का मकान और प्लाट होने के बावजूद तमाम मान्यता प्राप्त वरिष्ठ पत्रकार सरकारी आवासों में अवैध रूप से रह रहे हैं, जबकि नियमानुसार सरकारी आवास की सुविधा उन पत्रकारों के लिए है, जिनके पास राजधानी में रहने के लिए अपना मकान या ठिकाना नहीं है। उस पर तुर्रा यह कि अपना मकान होते हुए ही भी जो वरिष्ठ पत्रकार सरकारी मकानों में नियम विरुद्ध रह रहे हैं, वे सरकारी मकानों का किराया भी नहीं दे रहे हैं। अपने मकानों को महंगे किराए पर देकर यह लाखों रुपए महीना उठा रहे हैं, लेकिन सरकारी आवास का किराया देने में इनको शर्म आती है।
तमाम वरिष्ठ पत्रकारों के सरकारी आवासों का किराया एक लाख से लेकर सात लाख रुपए से ऊपर पहुंच गया है। इनमें से कई पत्रकारों का लिखने-पढ़ने से कोई वास्ता नहीं है। कई तो टीवी पर बैठकर तमाम मुद्दों पर दूसरों की नैतिकता और भ्रष्टाचार पर बहस करते हैं, जबकि इनके खुद के बकाया किराया लाखों में पहुंच गया है। सवाल यह है कि आखिर इतना किराया बकाया होने के बावजूद राज्य सम्पत्ति विभाग और सरकार इन पत्रकारों के खिलाफ कोई एक्शन क्यों नहीं ले रही है? जब पूर्व मुख्यमंत्रियों से बंगला खाली करवाया जा सकता है तो जबरिया और गलत तरीके से रहने के बावजूद सालों किराया नहीं देने वाले पत्रकारों से सरकारी आवास क्यों नहीं खाली कराया जा सकता है? क्यों ऐसे लोगों के खिलाफ सरकार एक्शन लेने में परहेज कर रही है?
दरअसल, एक तरह देखा जाए तो कई पत्रकार गलत सूचनाओं और दस्तावेजों के सहारे सरकारी आवासों में जमे हुए हैं। सरकार चाहे तो इनके खिलाफ 420 का मुकदमा भी चलवा सकती है, लेकिन अब तक किसी भी सरकार ने फर्जीवाड़ा करने वाले पत्रकारों के खिलाफ कार्रवाई की हिम्मत नहीं दिखा पाई है। उल्लेखनीय है कि सरकारी मकानों में रिहायश के लिए आवंटन की शर्तों का पालन भी आवश्यक है, लेकिन ज्यादातर मामलों में इसका पालन नहीं किया जा रहा है। उत्तर-प्रदेश राज्य सम्पत्ति विभाग अनुभाग-2 ने अपने सरकारी आदेश संख्या-आर-1408/32-2-85-211/77 टीसी में स्पष्ट उल्लेख किया है कि यदि कोई भी आवंटी शर्तों और प्रतिबंधों को भंग करता है तो राज्य सम्पत्ति विभाग उस आवंटी का आवंटन बिना कारण बताए निरस्त कर उसे सरकारी आवास से बेदखल कर सकता है।
बावजूद इसके बड़ी संख्या में पत्रकार सरकारी बंगलों और आवासों पर कुंडली मारे बैठे हुए हैं। तमाम कथित पत्रकार ऐसे हैं जिनका आवास सालों का किराया तो बाकी है ही भारी भरकम बिजली भी बाकी है। सरकारी आवासों में अवैधानिक तरीके से काबिज इन पत्रकारों की हनक सत्ता के गलियारे से लेकर मजबूत नौकरशाही तक है, लिहाजा इनके खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत न सरकार जुटा पा रही है और ना ही विभाग जुटा पा रहा है।
वर्ष 1985 में बनी राज्य सम्पत्ति विभाग की नियमावली के अनुसार सरकारी आवास उन्हें ही दिए जाने का प्राविधान है, जिनका निजी मकान लखनऊ में न हो। साथ ही ऐसे पत्रकारों का मान्यता प्राप्त होने के साथ ही अखबार में पूर्ण कालिक सेवा का होना जरूरी है। नियमों में साफ कहा गया है कि उन्हीं पत्रकारों को सरकारी मकान की सुविधा दी जायेगी, जिनके समाचार पत्र का पंजीकृत कार्यालय लखनऊ में होगा। राज्य सम्पत्ति विभाग के इन नियमों की भी खुलेआम धज्जियां उड़ायी जा रही हैं। सैकड़ों की संख्या में ऐसे पत्रकारों को मकानों का आवंटन कर दिया गया है, जिनका पंजीकृत कार्यालय लखनऊ में नहीं है। 1985 में बनी नियमावली के मुताबिक 550 से लेकर 2500 रूपए प्रतिमाह वेतन पाने वालों को श्रेणीबद्ध तरीके से मकानों के आवंटन की व्यवस्था की गयी है। इस नियम के तहत जिस प्रकार के आवासों के लिए राजकीय अधिकारी अर्हं हैं, उसी प्रकार से पत्रकारों के लिए भी वेतन के अनुसार नियमावली में श्रेणीबद्ध किया गया है। नियमावली के तहत सरकारी आवासों का आवंटन एक निर्धारित अवधि के लिए ही किए जाने का प्राविधान है।
तत्पश्चात उक्त अवधि को तभी बढ़ाया जा सकता है जब समिति अनुमोदन करे। विडम्बना यह है कि उक्त नियमों का कहीं भी पालन नहीं किया जा रहा है। कई-कई पत्रकार तो दशकों से सरकारी आवासों पर कब्जा जमाकर बैठे हैं। कई ऐसे हैं जो अखबार से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। नियमावली में स्पष्ट उल्लेख है कि पत्रकारों के आवास तभी तक उनके पास होंगे जब तक वे लखनउ में किसी मान्यता प्राप्त अखबार में कार्यरत रहेंगे। सेवानिवृत्त हो जाने के बाद अथवा तबादला हो जाने की स्थिति में उनका आवंटन स्वतः निरस्त कर दिया जायेगा। विडंबना है कि पत्रकारों को आवास आवंटन के ज्यादातर मामलों में इस नियमावली की अनदेखी की गई है। सवाल यह है कि आखिर राज्य सम्पत्ति विभाग क्यों नहीं सरकारी आवासों में रहने वाले पत्रकार अध्यासियों की जांच कराकर दूध का दूध पानी का पानी कर रहा है।
बीबीसी रिटायर हो चुके तथा नैतिकता का भारी भरकम झोला अकेले उठाने वाले वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी अपना आवास होने के बावजूद सरकारी आवास पर कब्जा जमाए हुए हैं। उस पर तुर्रा यह कि सालों से किराया नहीं दिए हैं। रामदत्त त्रिपाठी को तत्कालीन मुलायम सरकार ने अनुदानित दरों पर पत्रकारपुरम में प्लाट संख्या 2/91 आवंटित किया था। इस भूखंड का उपयोग आवासीय योजना के लिए किया गया था, लेकिन इसका दूसरे तरीके से इस्तेमाल हो रहा है। इस भूखंड पर आलीशान तीन मंजिला मकान बन चुका है तथा इसका कामर्शियल उपयोग किया जा रहा है और श्री त्रिपाठी गुलिस्तां कालोनी में आवास संख्या 55 नम्बर में नियम विरुद्ध तरीके से काबिज हैं।
आरटीआई से प्राप्त सूचना के अनुसार रामदत्त त्रिपाठी पर सरकारी आवास का 334306 रुपए का किराया बाकी है। कई महीनों का किराया श्री त्रिपाठी ने जमा नहीं कराया है। दूसरे से नैतिक और चरित्रवान होने की उम्मीद रखने वाले श्री त्रिपाठी खुद नैतिकता से कोसों दूर हैं। नियम विरुद्ध तरीके से सरकारी आवास में रहने और किराया ना देने के बावजूद सरकारी सिस्टम में दम नहीं है कि यह इन्हें बाहर का रास्ता दिखा सके।
पत्रकारों के नेता हेमंत तिवारी पर तो कोई नियम-कानून लागू नहीं होता है। हेमंत तिवारी को अनुदानित कोटे से विराज खंड गोमतीनगर में1/19 नंबर का प्लाट आवंटित हुआ है। एलडीए की नियमावली के अनुसार इस प्लाट पर पांच सालों के भीतर निर्माण हो जाना चाहिए था। पांच वर्ष तक निर्माण न होने की दशा में जुर्माने के साथ पांच साल का अतिरिक्त समय दिए जाने का प्रावधान है। यदि दस साल बाद भी इस पर निर्माण नहीं होता है तो यह आवंटन निरस्त हो जाएगा, लेकिन हेमंत तिवारी मामले में ऐसा कुछ नहीं हुआ। अभी इस प्लाट पर निर्माण कार्य नहीं हुआ है, जबकि आवंटन हुए दस साल से अधिक समय गुजर चुका है। इसी प्लाट पर हेमंत तिवारी की पत्नी के नाम से ‘जनता समाचार टुडे’ नाम से अखबार का पंजीयन करा रखा है, जो धोखाधड़ी की श्रेणी में आता है।
खैर, अनुदानित दर पर प्लाट आवंटित होने के बावजूद हेमंत तिवारी नियम विरुद्ध तरीके से सरकारी बंगला बी-7 बटलर पैलेस में रह रहे हैं। श्री तिवारी पर 386954 रुपए का किराया बकाया है। बिजली बिल बकाया होने पर इनके घर की बिजली भी पिछले दिनों काट दी गई थी। बाद में कुछ पैसा जमा करने तथा अधिकारियों के कहने पर बिजली आपूर्ति शुरू की गई थी। श्री तिवारी की धमक का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह इसके पूर्व भी एक सरकारी आवास में रहने के बावजूद किराया नहीं दिया तथा रसूख और जुगाड़ के बल पर दूसरा बंगला आवंटित करा लिया। कोर्ट का आदेश भी इनके खिलाफ कार्रवाई नहीं करवा सका। राज्य मुख्यालय मान्यता समिति के अध्यक्ष हेमंत तिवारी बटलर पैलैस बी-7 में अध्यासित होने से पूर्व इसी वीआईपी कॉलोनी के भवन संख्या सी-76 के अध्यासी थे।
हेमंत तिवारी को आवंटित इस मकान काफी समय तक विभाग की ओर से अनाधिकृत कब्जे के रूप में घोषित किया गया था। विभाग का कहना था कि श्री तिवारी 1 नवम्बर 2001 से लखनऊ से बाहर थे, लिहाजा उनका आवंटन रद्द कर दिया गया था। श्री तिवारी ने मकान पर से अपना कब्जा नहीं छोड़ा था। इसी कारण से राज्य सम्पत्ति विभाग ने उनका अध्यासन अनाधिकृत घोषित कर दिया था। प्राप्त जानकारी के मुताबिक विभाग ने कई बार इन्हें नोटिस भी भेजा, लेकिन न तो इनकी तरफ से कोई जवाब आया और न ही मकान से कब्जा छोड़ा गया। राज्य सम्पत्ति विभाग के अधिकारियों के निर्देश पर विहित प्राधिकारी द्वारा उक्त अवधि का बकाया किराया चार लाख, पांच हजार, आठ सौ बाईस (04,05,882.00) रूपया दण्डात्मक किराए के रूप में अंकित करते हुए वर्ष 2003 में उनके विरूद्ध बेदखली के आदेश भी पारित किया गया।
जानकारी के मुताबिक इससे पूर्व वे पूर्णकालिक पत्रकार के रूप में भी कार्यरत नहीं थे। 16 अगस्त2004 को सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग, लखनऊ ने इन्हें पूर्णकालिक पत्रकार के रूप में मान्यता प्रदान की। श्री तिवारी ने रिकार्ड के मुताबिक2003 में लखनऊ में वापस आना सूचित किया था। साथ ही श्री तिवारी ने राज्य सम्पत्ति विभाग में दूसरा मकान आवंटित करने का प्रार्थना पत्र दिया, जबकि सम्बन्धित विभाग बिना वसूली के दूसरा मकान आवंटित करने के पक्ष में नहीं था। किराए की वसूली और दूसरे मकान के आवंटन को रोकने के लिए दाखिल सिविल अपील संख्या-4064/04 एसडी वादी बनाम डिवीजनल टै्फिक आफीसर केएसआरटीसी दाखिल की गयी थी। 31 जुलाई 2007 को उक्त अपील में माननयी सर्वोच्च न्यायालय ने इस आशय का निर्णय दिया था कि श्री तिवारी के प्रश्नगत आवास के पुर्न आवंटन के प्रार्थना-पत्र पर तब तक आदेश पारित न किए जाए जब तक वे विहित प्राधिकारी द्वारा निर्धारित दण्डात्मक किराए की धनराशि रूपये चार लाख, पांच हजार, आठ सौ बाईस रूपए जमा न कर दें।
श्री तिवारी ने विभाग को जो सूचना दी थी उसके कथनानुसार उनके अमृत प्रभात समाचार पत्र के ब्यूरो में दिनांक 5 जनवरी 2003 से 15 जुलाई 2004 तक प्रमुख संवाददाता लखनऊ के पद पर रहने की अवधि को विनियमित करते हुए उक्त अवधि में सामान्य दर से किराया निर्धारित किया जाना शामिल था। द्वितीय 16 अगस्त 2004 से वाद दाखिल किए जाने के समय तक अनाधिकृत अवधि में श्री तिवारी राज्य मुख्यालय पर स्वतंत्र पत्रकार के रूप में मान्यता प्राप्त भी रहे हैं। लिहाजा उक्त अवधि को विनियमित मानते हुए सामान्य दर पर किराया निर्धारित किया जाना चाहिए। इन प्रश्नों को आधार मानते हुए विभाग ने भी सख्त कदम उठाते हुए कहा था कि जब तक श्री तिवारी उक्त रकम अदा नहीं कर देते तब तक उन्हें न तो कोई नया सरकारी मकान आवंटन किया जायेगा और ना ही पुराने आवंटन का नवीनीकरण ही किया जायेगा। चौंकाने वाला पहलू यह है कि सर्वोच्च न्यायालय के सख्त आदेश और विभागीय अधिकारियों की सख्ती के बावजूद हेमंत तिवारी से किराया नहीं वसूला जा सका। इसके विपरीत सारे कानून और नियमों को दरकिनार करके उन्हें उसकी वीआईपी कालोनी में दूसरा मकान आवंटित कर दिया गया।
पत्रकारों के बड़े नेता हैं के विक्रम राव। पत्रकार हितों के लिए काम करने-जूझने वाले संगठन में मुखिया हुआ करते हैं। आम पत्रकारों के लिए भले कभी ना जूझे हों, लेकिन लंबे समय से हेमंत तिवारी से जूझ रहे हैं। संगठन और उसमें पद को लेकर। यह नहीं पता कि इन दोनों में सही कौन है, किसका संगठन सही है, लेकिन दोनों जुझारू पत्रकार हैं? अक्सर जूझते रहते हैं। सपा शासनकाल में जगेंद्र सिंह को जलाकर मार डाला गया, लेकिन दोनों वरिष्ठ नेता इस मामले में जूझ नहीं पाए। उम्र का असर रहा हो शायद! राव साहब तो अपने पुत्र विश्वदेव राव को भी जुझारू बना रहे हैं, पत्रकार! के विक्रम राव वाले संगठन में विश्वदेव राव भी पदाधिकारी बन के पत्रकारों के लिए जूझना सीख रहे हैं। शायद इसे राजनैतिक दलों की तरफ परिवारवाद नहीं कहा जा सकता है! छोटे राव साहब की लगन देखकर लगता भी है कि यह अखिलेश यादव की तरह अपने पिता को पीछे छोड़कर पत्रकारों के बड़े नेता बन जाएंगे, एक दिन। जुझारू भी।
खैर, हम बात कर रहे थे कि के विक्रम राव साहब पत्रकारों के नेता हैं, इनसे छोटे-मोटे पत्रकार, नये-नवेले पत्रकार सीखते हैं। राव साहब युवा पत्रकारों के लिए रोल माडल हैं। के विक्रम राव साहब मंचों से नैतिकता, ईमानदारी आदि-इत्यादि की बात पत्रकारों से करते भी रहते हैं। मंचों पर नैतिकता और ईमानदारी ही ओढ़ते और बिछाते हैं। पर यह ईमानदारी और नैतिकता दूसरों पर और केवल मंच तक ही लागू होती है शायद। इन्हें गुलिस्तां कालोनी में 7 नंबर का सरकारी बंगला आवंटित किया गया है। राव साहब मिसाल पेश करते हुए कई महीने का किराया अदा नहीं किए हैं। बड़े सरकारी किराया बकाएदारों में शामिल हैं। पर रसूख ऐसा है कि कोई किराए के लिए चूं भी नहीं कर सकता। इनका मात्र 399320 रुपए किराए के तौर पर बाकी है। बताया जाता है कि राव साहब के पास लखनऊ के अलीगंज के चेतन विहार में बड़ा मकान है, जिसके लिए सरकार ने भी अनुदान दिया था। यहां पर इनकी प्रिंटिंग प्रेस भी है। अपना घर, जमीन-जायदाद होते हुए भी राव साहब का सरकारी बंगले का मोह नहीं छूट पा रहा है।
पत्रकार पोपटलाल की तरह अपने अखबार की खबरों से दुनिया हिला देने का दावा करने वाले संजय शर्मा की तो बात ही निराली है। खुद की ब्रांडिंग करने के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बस कुछ फीट ही पीछे होंगे शर्माजी! राजधानी में लगे किसी होर्डिंग पर पढ़ा भी था कि देश के चुनिंदा ईमानदार और निर्भीक पत्रकारों में शामिल हैं संजय शर्मा, अब यह वाला सर्टिफिकेट कहां से जुगाड़ा था नहीं पता, लेकिन फेसबुक पर अक्सर इनके दावे के अनुसार अखबार में छपने वाली लगभग हर खबर से सत्ता और सत्ताधारी हिलते रहते हैं। ब्यूरोक्रेट डुलते रहते हैं। पिछली सरकार के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तो संजय शर्मा के लंगोटिया यार गिनाए जाते थे। यारी इतनी जबर थी कि अखिलेश यादव इनके सरस्वती अपार्टमेंट के करोड़ों लागत वाले पेंट हाउस में भी पहुंचे थे। इनका घर निहारने। घूमने। देखने।
पिछली सरकार में तो इनकी इतनी तूती बोलती थी, कि जिस विज्ञापन पर हाथ रख देते थे, उनका अपना हो जाता था। पर, यह स्वघोषित ईमानदार और निर्भीक पत्रकार लखनऊ में अपना घर होने के बावजूद सरकारी घर के लोभ, लालच, मोह, माया, तृष्णा से बच नहीं पाया। वह भी तब जब यह कर्म सरकारी आवास नियमावली के विरुद्ध था। तत्कालीन सीएम का घोषित लंगोटिया यार होने के चलते राज्य सम्पत्ति विभाग के अधिकारी बिना चूं-चां किए संजय शर्मा को बटलर पैलेस जैसी शानदार कालोनी में बी-29 नंबर का बंगला आवंटित कर दिया। शर्माजी भी शायद थोड़ी गलतफहमी में इसे अपना निजी घर मान बैठे हैं। पिछले कई महीनों का किराया नहीं चुकाया है। इनका बकाया 330715 रुपए है। अब सवाल यह है कि गलत के खिलाफ लिखकर तमाम लोगों को हिला देने वाले इतने ईमानदार पत्रकार को ये सब काम शोभा देता है? शायद शोभा देता ही होगा तभी नियम विरुद्ध रहने के बावजूद किराया नहीं दे रहे हैं!
एएनआई की संवाददाता कामिनी हजेला भी उसी लिस्ट में शामिल हैं, जो अनुदानित प्लाट मिलने के बाद भी सरकारी आवास का मोह नहीं छोड़ पा रही हैं। सपा सरकार में कामिनी को विराज खण्ड में प्लाट संख्या 3/214 आवंटित किया गया था, इसके बावजूद कामिनी हजेला सरकारी आवास संख्या ओसीआर ए-1006 में नियम विरुद्ध तरीके से रह रही हैं। इन पर भी सरकारी आवास का 80746 रुपए बकाया है।
सुनीता ऐरन आंग्ल भाषा में छपने वाले अखबार हिंदुस्तान टाइम्स की संपादक हैं। बड़ी पत्रकार हैं। सरकार भी इन जैसों को बड़ा पत्रकार मानती है। यह बात तब पता चला आरटीआई वालों ने बताया था कि सरकार इनके सिफारिश पर पुरस्कार वगैरह भी दे डालती है। पिछली वाली अखिलेश भइया की सरकार में तो इनके कहे पर कई मिला यश भारती सम्मान पा गए थे। इनके पास गोमतीनगर के विभूति खंड में प्लाट नंबर 3/1 है, लेकिन इन्होंने सरकारी आवास ले रखा है। बी-3 दिलकुशा कालोनी में रहने वाली सुनीता ऐरन का कई महीने का 416207 रुपए किराया बकाया है।
एक अखबार के संपादक हैं जोरैर अहमद आजमी। इनको 4/3 डालीबाग में सरकारी आवास आवंटित हुआ है। लोग बताते हैं कि संपादक होने के साथ पार्ट टाइम में सुषेन वैद्य के झोला छाप वर्जन हैं। अब इसमें कितनी सच्चाई है यह तो नहीं पता, लेकिन लोग कहते हैं कि जनसेवा करते हुए आजमी साहब ताकत देने वाली पुडि़या बड़े-छोटे लोगों को बांटते रहते हैं बिल्कुल सेंटा क्लाज टाइप। इनकी पुडि़या के तमाम प्रशासनिक अधिकारी भी तलबगार पाए जाते हैं। खैर, आजमी साहब पर भी 33311.0 रुपए का किराया बाकी है।
वरिष्ठ माने जाने वाले पत्रकार दीपक गिडवानी भी इसी लिस्ट में शामिल हैं। गिडवानी के पास भी सरकारी अनुदान से हासिल किया गया प्लाट है, लेकिन इन्हें भी सरकारी आवास का मोह इतना है कि अपना घर ही पराया लगता है। गोमतीनगर के विराज खंड में 200 वर्ग मीटर के प्लाट नंबर 1/14 पर इनका मालिकाना हक है, लेकिन इनको यहां रहना अच्छा नहीं लगता है। गिडवानी गुलिस्ता कालोनी के 65 नंबर आवास में रहते हैं। इन्हें भी किराया देने से परहेज है। इनके ऊपर सरकारी आवास का 397265 रुपए बकाया है।
गुलिस्ता कालोनी में रहने वाले शरत प्रधान भी वरिष्ठ पत्रकार हैं। इनके पास भी लखनऊ के गोमतीनगर में जमीन-जायदाद है। इनको सरकारी अनुदान पर सस्ता प्लाट भी सरकार ने उपलब्ध कराया था, लेकिन सरकारी आवास में रहने का मोह यह भी नहीं त्याग पाए हैं। नियम के खिलाफ हो तब भी, अनैतिक हो तब भी, रहेंगे तो सरकारी आवास में ही। प्रधानजी गोमतीनगर के विजय खंड में 3/13 नंबर का प्लाट सरकारी अनुदान से प्राप्त हुआ था। इनकी पत्नी कामिनी प्रधान के नाम से भी गोमतीनगर के विभूति खंड में 2/48 नंबर का प्लाट है। इसके बावजूद शरत प्रधान सरकारी दिलकुशा कालोनी के बी-4 नंबर बंगले में सालों से जमे हुए हैं। इन पर भी 356735 रुपए का किराया बकाया है।
मुदित माथुर भी उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं। इनके पास सरकारी अनुदान से मिली जमीन तो है ही, इनका 3 बीएचके का एक फ्लैट भी है। इसके बावजूद सरकारी आवास में रहना इन्हें भी रास आता है। लखनऊ में आवास होते हुए भी सरकारी आवास एलाट कराना नियम विरुद्ध है, लेकिन तमाम पत्रकारों की तरह यह भी नियम की ऐसी-तैसी करते हुए डालीबाग के 1/4 नंबर के सरकारी आवास में कब्जा जमाए बैठे हैं। मुदित माथुर के नाम से गोमतीनगर के विराम खंड में एमआईजी बी टाइप हाउस है, जिसका नंबर 2/313 ए है। मुदित माथुर तथा यामिनी माथुर के नाम से गोमतीनगर के विनम्र खंड में भी 200 वर्ग मीटर का एक प्लाट है, जिसका नंबर 2/23 है। इसके अलावा मुदित माथुर, सरला माथुर एवं यामिनी माथुर के नाम से गोमतीनगर के सेक्टर 4 में 3बीएचके टाइप टू का एक फ्लैट है, जो सातवें तल पर है। इसका प्रापर्टी नंबर वाईएन/703-एम ब्लॉक है। मुदित माथुर पर भी सरकारी आवास का 241822 रुपए का किराया बकाया है।
वीर विक्रम बहादुर मिश्र भी वरिष्ठ पत्रकार हैं। इनके पुत्र आशीष मिश्र भी इंडिया टुडे में विशेष संवाददता हैं। वीर विक्रम को सरकार ने अनुदानित दर पर गोमतीनगर के विनय खंड में प्लाट उपलब्ध कराया था। इस पर इन्होंने मकान भी बनवा लिया है। उसका कामर्शियल इस्तेमाल भी कर रहे हैं, लेकिन सरकारी आवास में रहने का लोभ छूट नहीं पा रहा है। सरकारी आवास का आवंटन नियम विरुद्ध हुोते हुए भी नैतिकता को दरकिनार कर इसमें रह रहे हैं। इन्हें 3/8 कैसरबाग में सरकारी आवास आवंटित है। इसका कई महीने का 220462 रुपए का किराया बाकी है। इनके पास पैसे की भी कोई कमी नहीं है, लेकिन सरकारी सुविधा लेने और उसका किराया ना चुकाने की आदत से मजबूर हैं।
रुचि कुमार और कमाल खान भी वरिष्ठ पत्रकार हैं। इन पति-पत्नी के पास लखनऊ में तमाम जगह प्लाट और जमीनें हैं। पत्रकारिता, पत्रकार और नैतिकता पर भी लोग तमाम मंचों से भाषण वगैरह देते रहते हैं। बड़े आदमी हैं। लंबा चौड़ा इनकम टैक्स भी देते हैं, लेकिन सरकारी आवास का लाभ लेने में नैतिकता कहीं आड़े नहीं आती। नियम के विरुद्ध होते हए भी सरकारी आवास आवंटित करा रखा है। कमाल खान की पत्नी रूचि कुमार के नाम से बी-28 बटलर पैलेस में बंगला आवंटित है। बंगला तो नियम विरुद्ध है ही, लंबे समय से इसका किराया भी बकाया है। आरटीआई से मिली जानकारी अनुसार रूचि कुमार का 184790 रुपए बकाया है।
इसके अलावा भी तमाम ऐसे पत्रकार हैं, जिनका लखनऊ में मकान, प्लाट, फार्म हाउस वगैरह होने के बावजूद सरकारी आवास का मोह नहीं त्याग पा रहे हैं। चलो नियम विरुद्ध सरकारी आवास में रह भी रहे हैं तो किराया भी नहीं चुका रहे हैं। सरकारी आवासों में लगभग ढाई सौ पत्रकार रह रहे हैं, इनमें से ज्यादातर महीनों से किराया नहीं दे रहे हैं। इन पर राज्य सम्पत्ति विभाग का करोड़ों रुपया बकाया है। बड़े बकायेदारों में मुकेश हजेला, हेमेंद्र तोमर, मुकुल मिश्रा, राघवेंद्र नारायण मिश्र, जेपी शुक्ला, आरडी शुक्ला, राजेश शुक्ला, दिनेश शर्मा, एसपी सिंह, उपेंद्र शुक्ला, मनीष चंद्र पांडेय, राजेंद्र कुमार, राजीव ओझा, सुनील कुमार, कतील शेख, कुमदेश चंद्र, किशोर निगम, विनोद कुमार मिश्र, प्रीतम श्रीवास्तव समेत तमाम पत्रकार हैं, जिनका लाखों रुपए का किराया बकाया है।

ये हैं रोल माडल
लखनऊ की बजबजाती पत्रकारिता में ऐसा नहीं है कि हर पत्रकार अनैतिक है। कुछ युवा पत्रकार हैं, जो रोल माडल जैसे हैं। बेईमानों के बीच रहकर भी अनैतिकता और बेईमानी से दूर हैं। ऐसे ही पत्रकारों की लिस्ट में शामिल हैं ज्ञानेंद्र शुक्ल। ज्ञानेंद्र को 1/5 डालीबाग कालोनी में फ्लैट आवंटित है, लेकिन उनका एक रुपया किराया भी बकाया नहीं है। डालीबाग कालोनी में ही रहने वाले अतुल चंद्रा, अंकित श्रीवास्तव, भगवंत प्रसाद पांडेय, वरिष्ठ पत्रकार प्रद्युम्न तिवारी, रत्नमणि लाल, आसिफ रजा जाफरी, अजीत कुमार, यासिर रजा, महेंद्र तिवारी शामिल हैं, जिन पर एक रुपए का भी किराया बाकी नहीं है। पार्क रोड में रहने वाली नायला किदवई, अजीत कुमार खरे भी चुनिंदा पत्रकारों में शामिल हैं, जिनका एक रुपया भी किराए के तौर पर बकाया नहीं है। ओसीआर में रहने वाले विद्याशंकर राय, मनोज भ्रदा, राजीव भट्ट, एसएम वारी तथा पंकज जायसवाल का एक भी रूपया बकाया नहीं है। हालांकि इसमें यह भी ध्यान देने योग्य है कि अतुल चंद्रा, रत्नमणि लाल समेत कई पत्रकारों के पास लखनऊ में अपना प्लाट और आवास है।
ये हैं बड़े बकाएदार
कुछ तो पत्रकार ऐसे हैं, जिनका बकाया चार लाख रुपए से ऊपर या इसके आसपास है। इतना बकाया होने के बावजूद राज्य सम्पत्ति विभाग के अधिकारियों में इतना बूता है कि वे किराया वसूल सकें या फिर मकान खाली करा सकें। आम आदमी के लिए गब्बर सिंह बन जाने वाले सरकारी कर्मचारी इन पत्रकारों के समक्ष भीगी बिल्ली बन जाते हैं। 1, टाइप -5 बटलर पैलेस में भाष्कर दुबे बिना आवंटन के रह रहे हैं। इन पर 733054 रुपए का किराया बकाया है। गोलेश स्वामी हिंदुस्तान अखबार के पत्रकार हैं। इनको गोमती नगर के विराज खंड में 3/45 नंबर का प्लाट आवंटित है। इसके बावजूद यह नियम विरुद्ध सरकारी आवास 102 लाप्लास में डंटे हुए हैं। इन पर 415555 रुपए का किराया बकाया है। लाप्लास के 105 नंबर फ्लैट में रहने वाले आलोक अवस्थी पर 710953 रुपए का किराया बकाया है।
305 लाप्लास में रहने वाले शिवपाल सिंह यादव के करीबी पत्रकार ब्रजमोहन सिंह पर भी 415585 रुपए का किराया बकाया है। 404 लाप्लास में रहने वाले बिपिन चौबे पर 471970 रुपए का किराया बकाया है। 506 लाप्लास में रहने वाले प्रीतम श्रीवास्तव पर 425326 रुपए का किराया बाकी है। 704 लाप्लास के निवासी संजीव कुमार श्रीवास्तव पर भी 425326 रुपए का किराया बकाया है। 901 लाप्लास में रहने वाले मोहसिन हैदर रिजवी पर भी सरकारी आवास का 488826 रुपए का किराया बकाया है। 1004 लाप्लास में रहने वाले अभिषेक बाजपेयी ने बकाया का रिकार्ड तोड़ डाला है। अभिषेक पर 805351 रुपए किराये के तौर पर बकाया है, जो सभी पत्रकारों अव्वल नंबर पर है।
1005 लाप्लास निवासी विश्वदीप घोष पर 413512 किराया बाकी है। 12 गुलिस्ता कालोनी में रहने वाली रेखा तनवीर पर 448995 रुपए किराये के तौर पर बकाया है। 23 गुलिस्ता निवासी वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेंद्र शर्मा पर 392937 रुपए बकाया है। 26 गुलिस्ता में रहने वाले घनश्याम दूबे पर 417861 रुपए किराये के तौर पर बाकी है। 64 गुलिस्ता निवासी अनिरुद्ध सिंह पर 479962 रुपए बाकी हैं। 71 गुलिस्ता निवासी उमेश रघुवंशी पर 404265 रुपए किराये के रूप में बाकी है। बी-6 दिलकुशा निवासी एमएम बहुगुणा पर 416082 रुपए, सी-13 दिलकुशा निवासी दयानंद सिंह पर 491085 रुपए, 1/1 कैसरबाग निवासी पवन मिश्रा पर 433850 रुपए तथा बी-505 ओसीआर निवासी अशोक मिश्रा पर 526141 रुपए किराये के तौर पर बाकी है।
एनडी तिवारी ने शुरू की थी सुविधा
लगभग 33 साल पहले 21 मई 1985 को कांग्रेसी नेता व पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के शासनकाल में राजधानी लखनऊ के पत्रकारों को सरकारी आवास की सुविधा देने की गरज से एक नीति बनायी गई थी। इस नीति के तहत पत्रकारों को सरकारी बंगलों को लाभ देने की जिम्मेदारी राज्य सम्पत्ति विभाग के अनुभाग-2 को सौंपी गयी थी। बैठक में करीब दर्जन भर बिन्दुओं पर विचार-विमर्श के साथ नियमावली लागू की गयी थी। सरकार का यह कदम उस वक्त के कुछ वरिष्ठ पत्रकारों के अनुरोध पर उठाया था। विडम्बना यह है कि लगभग तीन दशक पहले बनी इस नीति में आज तक कोई संशोधन नहीं किया जा सका है, जबकि इस दौरान पत्रकारों के वेतन सहित उनकी आर्थिक हैसियत काफी सुदृढ़ हो चुकी है।
1985 की नियमावली के तहत जो पत्रकार ढाई हजार या फिर उससे अधिक वेतन पाते हों तो उन्हें सरकारी आवास की सुविधा नहीं दी जा सकती, जबकि हकीकत यह है कि वर्तमान में अखबार कार्यालय का एक चपरासी भी पांच से आठ हजार का वेतन पाता है। नियमावली में स्पष्ट उल्लेख है कि जिनका निजी मकान अथवा रेंट कंट्रोल एक्ट के अन्तर्गत मकान होगा, उन्हें सरकारी आवास की सुविधा नहीं दी जा सकती। राजधानी लखनऊ के पत्रकार इन नियमावलियों का खुलेआम उल्लंघन कर रहे हैं। सैकड़ों की संख्या में ऐसे पत्रकार हैं, जिन्हें मुलायम सरकार ने रियायती दरों पर प्लाट और मकान उपलब्ध करवाए हैं। इतना ही नहीं कई पत्रकारों के स्वयं के आवास राजधानी में हैं, बावजूद इसके वे सरकारी बंगलों पर कब्जा जमाए बैठे हैं।
अनुदानित मकानों, भू-खण्डों में व्यापार
सरकार से अनुदानित दर पर प्राप्त पापर्टी से पत्रकार लाभ उठा रहे हैं और सरकारी मकान में रहकर किराया भी नहीं दे रहे हैं। कई पत्रकारों के प्लाट का कामर्शियल इस्तेमाल किया जा रहा है। किसी में जूते की दुकान खुली है तो किसी में चल रहा है पीसीओ। कहीं खुला है लाईम स्टोर तो किसी मकान में खुल गयी है लाण्ड्री। किसी ने बैंक को महंगी दरों पर दे रखा है तो किसी में चल रहा है स्कूल। कोई शराब का दुकान किराये खुलवाकर मजे मार रहा है। यह हाल है कि सरकार द्वारा अनुदानित दरों पर प्रदत्त किए गए उन मकानों, भू-खण्डों का जिसे पत्रकारों को सब्सिडी के तौर पर रहने के लिए आवंटित किया गया था।
दृष्टांत पत्रिका से साभार.